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Saturday 23 July 2011

विश्वविद्यालय का अनुभव


चै. देवीलाल विश्वविद्यालय में जब से पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग बना, मैं यहां आने के लिए उत्सुक रहा। विडम्बना है कि पत्रकारिता के क्षेत्र को हमारा समाज सिर्फ एक टाइम पास मानता है। इसी का नतीजा रहा कि कमाउ पूत बनाने की दिशा में बढ़ने के लिए मुझे भी उकसाया गया। लेकिन पत्रकारिता का जुनून, या कहें कि पत्रकारिता का कीड़ा मेरे पिता ने मेरे रोम-रोम में पहले ही छोड़ दिया था और गनीमत रही कि मैंने उसे मरने नहीं दिया।
आज विश्वविद्यालय में एमएमसी प्रथम वर्ष में हूं। कुछ दिन से कक्षाएं जारी हैं। काफी नए दोस्त मिले हैं। पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष वीरेन्द्र सिंह चैहान के वक्तव्य काफी मौकों पर सुनने को मिले, लेकिन कक्षा में सीधे तौर पर संवाद का मौका मिला। विद्यार्थियों को संबोधित करते हुए उन्होंने सबसे पहले उंचे सपनों की बात की। खयाल बुनो, तो उंचे। हो सकता है आपके राह में आपको सैंकड़ों मुश्किलें पेश आएं, लेकिन जब आप बिना थके इन मुश्किलों पर पार पाएंगे तो ही कामयाब हो पाएंगे।
पत्रकारिता में सम्मान और आजीविका के संबंध में एक विद्यार्थी के सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि ऐसा सोचना कतई गलत होगा कि पत्रकारिता आजीविका का साधन नहीं बन सकती। उन्होंने कुछ शख्सियतों का उदाहरण देते हुए बताया कि पत्रकारिता का क्षेत्र सम्मानजनक तो है ही, साथ ही मनुष्य की आधुनिक आवष्यकताओं की पूर्ति करने का माद्दा भी रखता है।
उन्होंने कहा कि युवाओं को अब इस क्षेत्र में खासतौर पर प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है। चूंकि अब युवा व्यावहारिक के साथ-साथ तकनीकी और किताबी ज्ञान से भी परिपूर्ण हैं, इसलिए उनके लिए अपार संभावनाएं हैं। पत्रकारिता में अध्यापन कार्य ने भी नए आयाम स्थापित किए हैं। उनके अलावा प्राध्यापक रवीन्द्र व अमित सांगवान ने भी संबंधित विषयों पर विद्यार्थियों को संबोधित किया।
विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की खास बात यह रही कि पहले दिन से ही व्यावहारिक कार्य करने के लिए विभाग के संसाधन हमारे हवाले कर दिए गए। जो दिल में आए, करो! और मेेरा यह ब्लाॅग भी अध्ययन के दौरान दूसरे ही दिन किए गए एक प्रयोग का नतीजा है।

Thursday 21 July 2011

अरिदमन होने का अर्थ

    अपना ब्लॉग शुरू किया तो सोचा, क्या नाम दिया जाए। ऐसा नाम जो अर्थपूर्ण हो। फिर खुद का नाम जेहन में उठा। अरिदमन! मुझे पिता ने यही नाम दिया। यह नाम दो शब्दों 'अरिÓ और 'दमनÓ को लेकर  बना है।  अरि का अर्थ  है दुश्मन, और दमन का मतलब नाश। इस प्रकार यह दुश्मन का नाश करने का संदेश देने वाला नाम पहले मेरे लिए इतना अर्थपूर्ण नहीं था। लेकिन अब इसके मायने मैं भले से समझने लगा हूं। 
    जानता हूं कि देश के दुश्मनों (चाहे वे किसी भी रूप में हों) का नाश करने का जुनून पालने वाले को अब पागल का नाम दिया जाता है। वर्तमान में खाओ और खाने दो की रिवायत है। व्यवस्था ही ऐसी बन चुकी है। सवा करोड़ की जनसंख्या वाले देश भारत में मैं अदना इंसान भी इसी व्यवस्था का हिस्सा बन चुका हूं। केवल मैं ही नहीं, मुझ जैसे कई अरिदमन दिल में व्यवस्था की जर्जरता पर आंसू बहाते इसे बदलने की सोच पाले हुए हैं।
    देश का दुश्मन एक नहीं है। भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, आतंकवाद और न जाने ऐसे कितने ही अरि हैं देश के जिनका दमन किया जाना जरूरी है। लेकिन देश को पूर्ण रूप से इन दुश्मनों से मुक्त कर पाना संभव ही नहीं है। और यह कड़वा सच मेरे खयाल से हर किसी को अपना लेना चाहिए। परंतु, हम इसे कम चाहे न कर पाएं, बढऩे से तो रोक ही सकते हैं। नई पीढ़ी बहुत ही सूझवान है, बलवान है। इच्छाशक्ति की कमी नहीं है, यह सबसे बड़ी बात है। युवाओं का खून देश की दुर्दशा देख खौलता है, ऐसे अनेक उदाहरण हम हाल ही में देख चुके हैं। भगत सिंह ने न जाने किससे प्रेरणा ली, लेकिन अब के युवाओं के पास तो प्रेरक बहुत हैं। हमें जंग की जरूरत भी नहीं है। इंकलाब लाना है और इसके लिए हमें सिर्फ अपना काम ईमानदारी से करते जाना है। अरिदमन नामक यह ब्लॉग देश के दुश्मनों के खिलाफ किसी को लामबंद कर पाएगा या नहीं, परंतु यह जरूर दावा करता है कि इंकलाब जरूर आएगा, चाहे वह मिस्र की भांति आए या युवाओं के चुपचाप इस व्यवस्था से किनारा कर बदलाव की ओर बढऩे फैसले से।
-अरिदमन