LOVE THE NATURE...LOVE THE NATION

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Sunday 14 August 2011

'अ’ और 'आ’

    ज्योतिष शास्त्र में हालांकि मेरा रत्ती भर भी विश्वास नहीं है। लेकिन कई बार संयोग ऐसा बनता है कि समझ में नहीं आता कि इसे इत्तेफाक माना जाए या कुछ और। ऐसा ही संयोग इन दिनों 'अ’ और  'आ’ को लेकर बना हुआ है। अ से अगस्त का महीना शुरू हुआ ही था कि देश के लिए आ से आफत आन खड़ी हुई। वैसे तो भारत में आफतों का कभी अंत नहीं होता। लेकिन कई बार परिस्थितियां ऐसी होती हैं कि पूरा देश प्रभावित होता है।
    अब अ और आ पर गौर फरमाइएगा। अन्ना का आंदोलन अरसे से जारी था। अगस्त में फिर आमरण अनशन की आफत। अन्ना ने दिन भी चुना तो आजादी का। आरोपों का पहले ही अंत नहीं था, उस पर कहा गया कि आचरण अच्छा नहीं तो 'आलाकमान’ को  तिरंगा फहराने का अधिकार कहां? अब अवाम तो आजादी चाहता है। इसीलिए तो आंदोलन पर आमादा है।
    अन्ना की आफत गले में ही अटकी थी, उस पर कम्बख्त ये प्रकाश झा अपनी 'आरक्षण’ और ले आए। अब अनुसूचित जाति के अपमान की आफत! अन्ना के फेर से मुक्त मुख्यमंत्रियों ने इस अ, आ में उलझना उचित समझा और 'आरक्षण’ रूपी आग को दो महीने बाद लगाने का आदेश दिया। देखा जाए तो अक्तूबर में फिर से अ और आ का संयोग बन सकता है!
    मेरे साथ ऐसा पहली बार नहीं हुआ। मार्च में जापान सुनामी की तबाही से जकड़ा था। इसी दौरान मुझे कम से कम 10 दोस्तों के जख्मी होने की सूचना मिली, जिनके नाम 'ज’ से शुरू होते थे। इस बात ने मुझे हैरान किया और मैंने उन लोगों को सांत्वना में ग्रहों का प्रकोप होने की बात कह डाली। हालांकि अभी भी मैं इसे मानता नहीं हूं।
    अब अ और आ की असलियत क्या है, यह तो नहीं जानता लेकिन अगस्त का अंत होने में अभी 16 दिन बाकी हैं और यही मेरी परेशानी का सबब बना हुआ है। मेरे दिन वैसे ही अच्छे नहीं रहते हैं, इस पर मेरा नाम भी अ से शुरू होता है। आगे अल्ला जाने अंजाम!

Friday 12 August 2011

सिर्फ धागा नहीं, प्यार बांधिए!

    आज रक्षा बंधन है। विशेषत: भाई-बहन के स्नेह को समर्पित यह त्यौहार हर वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति में रिश्तों को जितनी महत्ता दी गई है, शायद और किसी समाज में नहीं। शायद इसीलिए भारतीय संस्कृति सर्वसम्पन्न है। और यह सिर्फ मेरा मत नहीं है, विश्वभर में अपनी धाक होने का दावा करने वाली पाश्चात्य संस्कृति के पैरोकार और विद्वान भी इस बात को यदाकदा दबी जुबान में स्वीकार कर जाते हैं। भारतीय शास्त्रों में हर दिन, हर त्यौहार एक खास उद्देश्य को लेकर बुना गया है। मूल रूप से ये सभी त्यौहार सामाजिक और पारिवारिक एकबद्धता और एकसूत्रता के सांस्कृतिक उपाय रहे हैं।
    रक्षा बंधन का त्यौहार भाई-बहन के रिश्ते की प्रगाढ़ता दर्शाता है। पूरे देश में भिन्न-भिन्न तरीकों और अनुष्ठानों से यह त्यौहार मनाया जाता है। त्यौहार का नाम हर जगह अलग हो सकता है, लेकिन भावना एक ही होती है। विदेशों में भी भारत जहां-जहां बसता है, संस्कृति की छाप अमिट रहती है। दूरियों के कारण राखी कलाई पर चाहे न बंध पाए, लेकिन रीति-रिवाजों का पालन करते हुए इसका आदान-प्रदान तो हो ही जाता है। 
    भाईयों की हर क्षेत्र में विजयश्री की कामना के साथ खुद की रक्षा किए जाने का संकल्प लेकर बहनों द्वारा बांधी जाने वाली राखी भी अब भौतिकवाद की भेंट चढ़ रही है।  राखी का धागा तो अब बेजोड़ सोने की शक्ल में कलाई पर बंधता है, लेकिन दिलों के धागों में जगह-जगह गांठ है। ऐसा नहीं है कि हमारे समाज में ऐसी परिस्थितियां एकाएक बन गई हैं। जाने-अनजाने हम आधुनिकता की अंधी दौड़ में रिश्तों का कत्ल करते जा रहे हैं। हम आधुनिक हो नहीं रहे हैं, लेकिन दिखावा करना चाहते हैं।
    वास्तव में हम 'पश्चिमÓ की चकाचौंध की ओर आकर्षित हो रहे हैं। हम लिव इन रिलेशनशिप की मांग करते हैं। समलैंगिकता को कानूनी मान्यता दिए जाने के पक्ष में उठ खड़े होते हैं। हमें 'वैलेन्टाइन डेÓ 'फ्रेंडशिप डेÓ, 'क्रिसमस डेÓ और लगभग हर डे तो याद है, लेकिन त्यौहार कई बार भूल जाते हैं। हर कोई संस्कृति और परंपराओं को रुढि़वाद करार देकर इससे किनारा कर रहा है। लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि जिस चकाचौंध की ओर हम भागने को आतुर हैं, वहां लोगों की आंखें जल्द ही चौंधिया जाती हैं। वे अंधे हो जाते हैं और उसके बाद उन्हें 'स्वÓ के सिवाय कुछ नहीं दिखता।
    एक सुखद बात यह है कि हम अभी भी रक्षा बंधन जैसे त्यौहार मनाते हैं। जरूरत इतनी ही है कि शिद्दत के साथ त्यौहार मनाया जाए। आधुनिक होना अच्छा है लेकिन रिश्ते अनमोल हैं। हम उस संस्कृति के पैरोकार हैं जिसने हजारों साल पहले 'विश्व एक हैÓ की बात कही थी, जिसे 'पश्चिमÓ ने व्यापारिक दृष्टि से अनुकूल मानते हुए अब अमल में लाने पर जोर दिया है। फिर हम अपने त्यौहारों को उनके लिए गौण क्यों करें, जो अभी हमसे हजारों साल पीछे चल रहे हैं।