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Sunday 6 November 2011

बस इतना अता करना...

अरिदमन
    कल एक कवि सम्मेलन की रिकॉर्डिंग सुनते हुए विख्यात कवि कुमार विश्वास की कविता ने यह लेख लिखने को मजबूर कर दिया। ईद-उल-जुहा से पहले सहसा ही ऐसी रिकॉर्डिंग हाथ लगी जिसमें मुसलमानों की बात की गई है, सही मायनों में कहा जाए तो सच्चे भारतीय की। कुमार विश्वास ने रेडियो के सर्वे का हवाला देते हुए आश्चर्यजनक आंकड़ा पेश किया है। रेडियो द्वारा देश के 10 लोकप्रिय भजनों के लिए 10 लाख हिंदुओं से ऑनलाईन वोटिंग करवाई गई। जो 10 लोकप्रिय भजन चुने गए, उनमें से 6 साहिल लुधियानवी के लिखे हैं और 4 शकील बदायनी के। दसों भजनों को स्व. नौशाद साहब द्वारा संगीतबद्ध किया गया है और सभी स्व. मोहम्मद रफी के गाए हुए हैं। सभी भजन स्व. महबूब खान की फिल्मों के गीत हैं और इनमें अभिनय युसुफ खान उर्फ दिलीप कुमार ने किया है। मेरे लिए ये तथ्य नए थे। वतन प्रेमी होने के चलते मुझे इससे आश्चर्यमिश्रित खुशी हुई। हमारे देश में किसी नाम में मोहम्मद या खान आते ही उस व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाता है। बेशक सार्वजनिक रूप से हम इसे स्वीकार नहीं करते लेकिन यह वास्तविकता है। बिना किसी को जाने, सिर्फ नाम ही हमारा किसी के प्रति नजरिया बनाने के लिए काफी होता है। और इसमें दोष हमारा नहीं है। हमारे वोट बैंक के लालची कुछेक राजनीतिज्ञों को यदि इसके लिए जिम्मेदार माना जाए तो यह कतई गलत नहीं होगा।
    देश के बंटवारे के बाद से लेकर आज तक की परिस्थितियों पर अगर नज़र दैड़ाई जाए तो जान पड़ता है कि हमारे राजनेताओं ने कभी भी धर्मनिरपेक्षता की ओर लोगों को बढऩे ही नहीं दिया। हिंदु-मुस्लिम की खाई अगर पाट दी गई तो लोग समतल मैदान पर दूरदर्शी हो जाएंगे। पूरा देश दूर तक देखने लगेगा तो उन चंद लोगों की दूरदर्शिता का कोई मोल ही नहीं रहेगा जो खाई के दोनों ओर के लोगों को 'चरा' रहे हैं। उनमें एक-दूसरे के प्रति इतना जहर भरा जा रहा है कि वे खाई पार करके दूसरी ओर की असलियत जानना ही नहीं चाहते हैं। नेताओं की इस वोटबैंक की राजनीति पर भी कुमार विश्वास प्रश्न उठाते हैं। पवित्र नवरात्र के व्रत पर किसी नेता को फुर्सत नहीं मिलती कि वे हिंदुओं को बुलाकर उनके व्रत का पारायण करवा दें लेकिन रमजान के निकट आते ही प्रधानमंत्री से पार्षद तक सभी इफ्तियार की पार्टी देने लगते हैं। जब तक राजनेता मनुष्य को वोट समझते रहेंगे, इस देश का इलाज नहीं हो सकता।
    अक्सर नेताओं द्वारा कहा जाता है कि देश की एकता, अखंडता के बारे में लिखना-बोलना आसान है। सीमावर्ती क्षेत्रों में इसे व्यावहारिक रूप देना असंभव है। लेकिन यहां सवाल पैदा होता है कि जब-जब देश के सैनिकों ने जान की परवाह किए बिना कदम बढ़ाए हैं, तब दिल्ली में हुई गोलमेज बैठकों में किसके दबाव और षड्यंत्र के चलते उन बढ़े कदमों को 'पीछे हट' की कमांड दे दी जाती है। कुमार विश्वास के अनुसार, वे एक बार लेह में थे। -40 डिग्री तापमान में उनके मुस्लिम चालक ने दोपहर के समय रास्ते में गाड़ी रोकने की इजाजत ली और बर्फ पर मुसल्ला बिछाकर नमाज़ पढऩे लगा। शुक्रिया पढ़े जाने के बाद कवि ने चालक से पूछा कि तुम इस नर्क में क्या मांगते हो, जहां बीमारी और मौत के अलावा कुछ नहीं मिलता। उस चालक के जवाब से प्रभावित कवि ने उस पर कविता लिख डाली :-
दौलत न अता करना मौला, शौहरत न अता करना मौला,
बस इतना अता करना, चाहे जन्नत न अता करना मौला,
शम्मा-ए-वतन की लौ पर जब कुर्बान पतंगा हो,
होठों पर गंगा हो, हाथों में तिरंगा हो।
    जाहिर है कि देश के रखवाले सैनिक तो कम से कम धर्म, मजहब के बारे में नहीं सोचते। मुस्लिमों के गाए भजनों से हिंदुओं के घर की आरतियां सजती हैं। धर्म अगर यहां आड़े नहीं आता तो फिर समाज क्यों बंटा है? ईद के इस त्यौहार के मौके पर सभी को मुबारकबाद देते हुए केवल यही गुज़ारिश की जाती है कि हर हाल में देश की एकता व अखंडता के लिए कार्य करें क्योंकि
सपूत की कोई ज़ात नहीं होती।
गद्दार का कोई मज़हब नहीं होता।।

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